एक वैदिक सूक्त

ॠ. 7. 60

 

यदद्य सूर्य व्रवोऽनागा उद्यन्मित्राय वरुणाय सत्यम् ।

वयं देवत्रादिते स्याम तब प्रियासो अर्यमन्गृणन्त: ।।

 

(सूर्य) हे सूर्य, हे प्रकाश ! (यत् अद्य) क्योंकि आज (उद्यन्) अपने उदयमें (अनागा:) निर्दोष होते हुए तूने (मित्राय) प्रेमके अधिपति और (वरुणाय) पवित्रताके अधिपतिके प्रति (सत्यं ब्रव:) सत्यकी घोषणा की है, इसलिए (अदिते) हे असीम माता ! (वयं) हम (तव प्रियास:) तेरे प्रिय होकर, (अर्यमन्) हे बलके अधिपति ! (तव प्रियास:) तेरे प्रिय होकर (गृणन्त:) अपने समस्त संभाषणमें (देवत्रा स्याम) देवत्वमें निवास करें ।

एष स्य मित्रावरुणा नुचक्षा उभे उदेति सूर्यो अभि ज्यन् ।

विश्वस्य स्थातुर्जगतश्च गोपा ऋजु मर्तेषु वृजिना च पश्यन् ।।

 

(मित्रावरुणा) हे मित्र ! हे वरुण ! (एष: स्व: नृचक्षा:) यह ही है वह देव जो आत्माके लिए देखता है, (सूर्य:) वह सूर्य जो (उभे अभि) द्यौ और पृथिवी दोनोंके ऊपर (ज्मन्) व्यापक विस्तारमें (उदेति) उदित होता है । (विश्वस्य स्थातु: जगतः च गोपा:) वह स्थावर और जंगम सभीकी रक्षा करता है, क्योंकि यह (मर्तेषु) मर्त्योंमें (ऋजु वृजिना च) सरल-सीधी और टेढ़ी वस्तुओंको (पश्यन्) देखता है ।

अयुक्त सप्त हरित: सधस्थाद् या इं बहन्ति सूयं घृताची: ।

धामानि मित्रावरुणा युवाकु: सं यों यूथेव जनिमानि चष्टे ।।

 

इस देदीप्यमान देवने आज (सधस्पात्) हमारी उपलव्धिके लोकमें (सप्त हरित:) सात तेजोमय शक्तियों [ अश्वों ]को (अयुक्त) जोत दिया है (या) जो (घृताची:) अपनी निर्मलतासे युक्त होती हुई (ईम् सूयं वहन्ति) इस सूर्यको वहन करती है; (य:) जो यह देव, (मित्रावरुणा) हे मित्र, हे वरुण, (युवाकु:) तुम दोनोंको चाहनेवाला है, (धामानि

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जनिमानि) आत्माके धामों तथा जन्मस्थानोंकी (यूथा-इव संचष्टे) उस प्रकार देख-रेख करता है जैसे पशुपालक अपने यूथोंकी ।

उद् वां पूक्षासो मधुमन्तो अस्थुरा सूर्यो अरुहच्छुक्रमर्ण: ।

यस्मा आदित्या अध्वनो रदग्ति मित्रो अर्यमा वरुण: सजोषा: ।।

 

(वां मधुमन्त: पृक्षास:) तुम्हारी मधुमय तुष्टियां (उत् अस्थुः) ऊपरकी ओर उठती हैं, क्योंकि (सूर्य:) हमारा सूर्य (शुक्रम् अर्ण:) निर्मल प्रकाशके सागरमें (अन् अरुहत्) आरोहण कर चुका है, (यस्मै) जिसके लिये [ उसके लिये ] (आदित्या:) अनन्त माता अदितिके पुत्र (अध्यन: रदन्ति) उसके मार्गको काटकर बनाते हैं । (मित्र:) प्रेमका अधिपति, (अर्यमा) बलका अधिपति और (वरुण:) पवित्रताका अधिपति भी (सजोषा:) परस्पर समस्वर होकर [ अध्वन: रदन्ति ] उसका मार्ग बनाते हैं ।

 ५

इमे चेतारो अनृतस्य भूरे मित्रो अर्यमा वरुणो हि सन्ति ।

इम ॠतस्य वावृधुर्दुरोणे शग्मास: पुत्रा अदितेरदब्धा: ।।

 

(इमे हि सन्ति मित्र: अर्यमा वरुण:) यही है वे प्रेम, बल और पवित्रताके अधिपति मित्र, अर्यमा और वरुण जो (भूरे: अनृतस्य चेतार:) हमारे भीतरके अत्यधिक असत्यको पहचानपार उसे पृथक् करते हैं । (इमे श्ग्मास: अदब्धा: अदिते: पुत्रा:) असीम माता अदितिके ये शक्तिशाली व अजेय पुत्र (ऋतस्य दुरोणे) सत्यके गृहमें (ववृधुः) बढ़ते हैं ।

इमे मित्रो वरुणो दूळभासोडचेतसं चिच्चितयीन्त दक्षै: ।

अपि ॠतुं सुचेतसं वतन्तस्तिरश्चिदंह: सुपथा नयन्ति ।।

 

(इमे दूळभास: मित्र: वरुण:) ये हैं वे प्रेम, पवित्रता [ और शक्ति ]के देवता मित्र, वरुण [ और अर्यमा ] जिनका दमन करना कठिन है । वे (दक्षै:)  अपनी विवेकशील क्रियाओंसे (अचेतसं चित् चितयन्ति) अज्ञानी को भी ज्ञान देते हैं; उसके लिये वे (सुचेतसम्) समीचीन अंतर्दृष्टिसे युक्त (ॠतुम् अपि) संकल्पकी प्रेरणाएँ भी (वतन्तः) लाते हैं और उसे (सुपथा) सन्मार्ग से (अंह: तिर: चित् नयन्ति) पाप और बुराईसे परे ले जाते हैं ।

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 ७

 

इमे दिवो अनिमिषा पृथिव्याश्चिचकित्वांसो अचेतसं नयन्ति ।

प्रव्राजे चिन्नद्यो गाधमस्ति पारं नो अस्य विष्पितस्य पर्षन् ।।

 

(मे) ये मित्र, वरुण [ और अर्यमा ] (दिव:) द्युलोकसे (अनिमिषा) निर्निमेष आँखोंसे (पृथिव्या: अचेतसम्) अज्ञानी मानवकी पार्थिव सत्तामें उसके लिये (चिकित्वांस:) देखते और जानते हैं तथा (नयन्ति) उसका पथ-प्रदर्शन करते हैं । (प्रव्राजे चित्) अपनी अग्रगामी गतिमें भी मनुष्य (नद्य: गाधम् अस्ति) नदीके अथाह गढ़ेमें जा पहुँचता हैं । तो भी वे (न:) हमें (अस्य विष्पितस्य) इस विशालताके (पारं पर्षन्) दूसरे पार तक ले जाएंगे ।

यद्गोपावददिति: शर्म भद्रं मित्रो यच्छन्ति वरुण: सुदासे ।

तस्मिन्ना तोकं तनयं दधाना मा कर्म देवहेळनं तुरास: ।।

 

(यत्) जो (गोपावत्) रक्षण, (शर्म) शान्ति और (भद्रम्) सुरव-आनन्द (अदिति:) अनन्त मां और (मित्र: वरुण:) प्रेम और पवित्रताके अधिपति (सुदासे यच्छन्ति) यज्ञके सेवकको प्रदान करते हैं (तस्मिन्) उसीमें (तोकं तनयम् आ दधाना:) हम अपने समस्त सर्जन और निर्माणको प्रतिष्ठित करें (तुरास:) हे द्रुतगामी पथिको ! (देवहेळनं मा कर्म) हम देवके किसी नियमका उल्लङ्गन न करें ।

अब वेदिं होत्राभिर्यजेत रिप: काश्चिद्वरुणध्रुत: स: ।

परि द्वेषोभिरर्यमा वृणक्तूरुं सुदासे वृषणा उ लोकम् ।।

 

(वरुण-ध्रुत: स:) जिसे पवित्रताके अधिपति वरुणने धारण कर रखा है वह (होत्राभि:) यज्ञकी शक्तियोंके द्वारा (काश्चित् रिप:) विघातकोंको, चाहे वे कैसे भी हों, (वेदि) अपनी वेदीसे (अव यजेत) दूर रखता है । (अर्यमा) हे बलके अधिपति ! (सुदासे) यज्ञके सेवकमेंसे (द्वेषोभि परि वृणक्तु) द्वेष तथा विभाजनका उन्मूलन कर दे । उसके अंदर (उरुम् उ लोकम्) अन्य विशाल लोकका निर्माण करो (वृषणौ) हे प्रचुर ऐश्वर्य-वृष्टिके दातायो !

१०

सस्वश्चिद्धि समृतिस्त्वेष्येषामपीच्चेन सहसा सहन्ते ।

युष्मद्धिया वृषणो रेजमाना दक्षस्थ चिन्महिना मृळता नः ।।

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(एषां समृति: हि) इन देवोंका एक साथ आना निश्चय ही (सस्व: चित्) देदीप्यमान बल और (त्वेषी) प्रकाशमय लोकका आगमन है । ये देव (अपीच्येन सहसा) अपनी समीपस्थ और समीप आती हुई शक्तिसे (सहन्ते) हमें अभिभूत कर लेते हैं । देखो ! (वृषण:) हे प्रचुर ऐश्वर्यके वर्षक देवो ! हम (युष्मत् भिया रेजमाना:) तुम्हारे भयसे कांप रहे हैं, (दक्षस्य चित् महिना) अपने विवेककी महिमासे (नः मृळ) हमें सुख-शान्तिमें प्रतिष्ठित करो ।

११

यो ब्रह्मणे सुमतिमायजाते वाजस्य सातौ परमस्य राय: ।

सीक्षन्त मन्युं मघवानो अर्य उरु क्षयाय चक्रिरे सुधातु ।।

 

क्योंकि (य:) जो मनुष्य (ब्रह्मणे) ब्रह्मज्ञानके लिए, (वाजस्य सातौ) प्राचुर्यकी प्राप्तिके लिए और (परमस्य राय: [ सातौ] ) परम आनन्दकी विजयके लिए जब भी (सुमतिम् आयजाते) यज्ञ द्वारा मनकी समीचीन स्थितिको अधिगत कर लेता है, तब (अर्य: मघवान:) शक्तिशाली योद्धा एवं निधिके स्वामी देवता (मन्युं सीक्षन्त) उसके भावुक हृदयके सनथ दृढ़तया संलग्न हो जाते हैं और (क्षयाय) उसके निवासस्थानके लिए वहाँ (उरु चक्रिरे) विशाल लोकका निर्माण करते हैं तथा उस लोकको (सुधातु [ चक्रिरे ] ) पूर्ण और पक्की धातका बनाते हैं ।

१२

इयं देव पुरोहितिर्युवभ्यां यज्ञेषु मित्रावरुणावकारि ।

विश्वानि दुर्गा पिपृतं तिरो नो यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ।।

 

(देवा मित्रावरुणौ) हे देवो. हे मित्र और वरुण, (युवभ्यां) तुम दोनोंके लिए हमने (यज्ञेषु) अपने यज्ञोंमें (इयं पुरोहिति: अकारि) दिव्य प्रतिनिधिके इस कार्यको सामने रखा है । (न: विश्वानि दुर्गा तिर: पिपृतम्) हमें सब दुर्गम स्थानोंसे निकालकर सुरक्षित पार ले जाओ । (यूयं सदा नः स्वस्तिभि: पात) हमें सदा शाश्वत सुरव-आनन्दोंके संग में रखो ।

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